दूसरे भारत का अभ्युदय Hindi Hindi translation of The other India rises in massive general strike (March 5, 2012)अनुवाद -जया सजलभारतीय षासक वर्ग तथा उसकी पालतू मीडिया द्वारा दषकों से फैलाये जा रहे सांप्रदायिक उन्माद, सामुदायिक हिंसा, क्षेत्रीय संघर्शो, जातीय पूर्वाग्रहों, धार्मिक कटटरपंथ, राश्ट्रीय दुराग्रह, तथा क्षेत्रीय अन्तरविरोधों भरी लोकतांत्रिक धूर्तताओं से पीडि़त भारतीय सर्वहारा अब इस धरती पर एक नए युग के आर्विभाव के लिए जागृत हो रहा है। 28 फरवरी को हुर्इ 24 घंटे की आम हड़ताल वर्तमान भारत के सामाजिक व राजनैतिक अभ्युदय का संधिकाल है।चमकता भारत (षाइनिंग इणिडया), नर्इ महाषकित तथा उत्साहवर्धक विकास दरों से लैस उत्प्लावक अर्थव्यवस्था वाली आर्थिक महाषकित ये सब कुछ चुनिंदा तमगे हैं जो 21वीं सदी के भारत को परिभाशित करने के लिए दिए जाते हैं। मुंबर्इ में गंदी व सघन झुगिगयों से भरे उपनगरों के बीच, मुकेष अंबानी की, नवीनतम आधुनिक गैजेटों से भरी, कर्इ हेलिपैडों व सिवमिंग पूलों वाली 27 मंजिली इमारत, बुजर्ुआ एय्याषी का एक जबर्दस्त व बेषर्म नमूना है। यह वह देष है जहां 250,000 से ऊपर की संख्या में किसानों ने नाकाबिले बर्दाष्त कर्ज और सूदखोरी के बोझ तले दबकर उन कीटनाषकों का सेवन कर आत्महत्या कर ली जिनका उपयोग उन्हेेंं फसलों को और अधिक संवर्धित करने के लिए करना चाहिए था। जहां एक ओर रतन टाटा द्वारा विनिर्मित जगुआर संयंत्र भारतीय सफलता की मील का एक पत्थर था, वहीं धरती के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में एक लाख से से भी अधिक लोग 20रू. प्रतिदिन से भी कम आय के कारण रोज भूखे रहते हैं। जिस समय साम्राज्यवादी एकधिपत्यवादी ताकतें तथाकथित भारत माता का खून चूस रहीं हैं उसी वक्त भारतीय विषालकाय निगमों के हुक्मरान यूरोप से लेकर खाड़ी देषों तक को अपने मुनाफे की उठापटक में खंगाल रहे हैं। इस लोलुप मद से अभिभूत पंूजी के इन मुनाफाखोरों ने सिवस बैंक में भ्रश्ट तरीके से 500 बिलियन डालर राषि का स्वेच्छापूर्ण ढंग से संग्रह किया है जबकि प्रत्येक वर्श 30,000 से अधिक बच्चे कुपोशण का षिकार होकर मौत के मुंह में जा रहे है।पिछले दो दषकों में हुर्इ रिकार्ड आर्थिक प्रगति दर के बावजूद, उभरती अर्थव्यवस्थाओं में षुमार भारत में आय की असमानता दुगुनी हो गर्इ है। मूल्य वृद्वि, श्रम कानूनों की पुर्नसंरचना, निजीकरण, अर्थव्यवस्था का अनियमितिकरण, व अन्य नवउदारवादी नीतियों ने कामगर आबादी का जीवन दुष्वार कर दिया है। इसी क्रम में, षहरी और ग्रामीण आबादी का बहुलांष हिस्सा गरीबी व बदहाली के दलदल मे डूबता चला रहा है।निहायत पेटटी बुजर्ुआ मुददों पर प्रतिक्रियावादी राजनीतिज्ञों द्वारा किये जाने वाले भ्रश्टाचार घोटालों की संख्या बढ़ती चली जा रही है। एक नव फासिस्ट प्रजानायक अन्ना हजारे के इर्द गिर्द चलने वाला आंदोलन मुख्यत: कारपोरेट पूंजीपतियो के एक धडे़ द्वारा प्रयोजित था, जिसके पीछे अपने आर्थिक व राजनैतिक विरोधियों का बदनाम करने की नीयत थी। परन्तु इस आंदोलन का वास्तविक मकसद इस तमाम बुजर्ुआ दुव्र्यवस्था के नीचे दबी जनता में पनप रही विद्रोह की आग को छिन्न भिन्न और खत्म करने का था। लालच से परिपूर्ण भारतीय मीडिया ने इस धर्मयुद्व में एक निर्णायक भूमिका अदा की जबकि यही मीडिया वास्तविक मुददो, जिनसे करोड़ों लोग प्रभावित हो हैं, पर क्रूर चुप्पी साध लेती है और यही मीडिया धार्मिक व राश्ट्रवादी उग्रता को लगातार भड़काती रहती है। प्रमुख ट्रेड यूनियन महासंघों द्वारा आहवानित आम हड़ताल की उन्नत अवस्था में मीडिया मषीनें अपनी पूर्ण हरकत में आ गर्इ और इस हड़ताल के खिलाफ नकरात्मक प्रचार के तूफान को बेलगाम कर दिया। वाम मोर्चे के राजनैतिक संषयवादी व निंदावादी तत्वों को मीडिया के इस समस्त अभियान में आकांक्षित सहायता मिली। मीडिया की स्वतंत्र दुनिया इस हड़ताल की असफलता के जयघोश में सुर मिला रही थी। यधपि यह हड़ताल भारत को पूर्णरूप से एक मंच पर नहीं ला पाया तब भी यह हड़ताल भारतीय सर्वहारा द्वारा वास्तविक मुददों पर चलाये जाने वाले अति महत्वपूर्ण आंदोलनों में एक था, जिसमें वर्गीय एकता को भटकाने, तोड़ने वाले उन पूर्वाग्रहों व विभाजनों को सिरे से नकार दिया गया जो कि जनता पर जबरन आरोपित है। आल इणिडया टे्रड यूनियन कांग्रेस (एटक), जो कि कम्युनिस्ट पार्टी से संबंधित टे्रड यूनियन महासंघ है, के महासचिव गुरूदास दासगुप्ता द्वारा 28 फरवरी की पूर्वसंध्या पर इस आम हड़ताल को निम्न षब्दों में चित्रित किया गया, यह एक ऐतिहासिक घटना है। पहली बार सभी बड़ी टे्रड यूनियनों ने एक साथ मिलकर सरकार की श्रम विरोधी नीतियों के खिलाफ प्रदर्षन करने का निर्णय लिया है। कुछ टे्रड यूनियन पदाधिकारियों के अनुसार, राश्ट्रीय न्यूनतम वेतन, 50 मिलियन कांटै्रक्ट मजदूरों के स्थायी रोजगार, रहन सहन के ऊपर आने वाले खर्च में तत्काल कमी किये जाने, तथा निजीकरण की नीति के खात्मे की मांगों को लेकर करीब एक करोड़ मजदूरों ने हड़ताल में भाग लिया। यातायात, बैक, डाक व्यवस्था तथा तमाम सरकारी क्षेत्र एक साथ हड़ताल पर थे। भारत के आर्थिक हब के रूप में पहचाने जाने वाले मुंबर्इ षहर के इतिहास में यह सबसे बड़ी हड़ताल थी। निचले तबके के मजदूरों की ओर से इतना अधिक दबाव था कि अधिकांष टे्रड यूनियन नेताओं द्वारा हड़ताल के आहवान में सावधानी बरती गर्इ ताकि सुधारवादी व गठजोड़ वाली नीतियों के खिलाफ मजदूरों के मन में पनप रहे आक्रोष के बावजूद मजदूरों की आस्था नेतृत्व पर बनी रहे। यहां तक कि सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस के टे्रड यूनियन इंटक तक को हड़ताल में षामिल होने के लिए बाध्य होना पड़ा । इसके अध्यक्ष जी संजीवा रेडडी को कहना पडा कि, हमारी सबसे महत्वपूर्ण मांगे हैं मजदूरों को ठेके पर रखने की प्रथा का खात्मा तथा मूल्य वृद्वि की अनियंत्रित गति पर लगाम लगाया जाना। कुछ षहरों में भारतीय जनता पार्टी ;ठश्रच्द्ध से संबंध टे्रड यूनियन बी एम एस को भी भाग लेना पड़। सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस तथा उसके सहयोगी दलों के अलावा मुख्यधारा की विपक्षी पार्टियों जैसी बीजेपी ने खुलकर हड़ताल का विरोध किया।कम्युनिस्ट नेतृत्व ने पूंजीवाद के समक्ष पूर्णत: घुटने टेक दिए है। इन वाम नेताओं ने समाज के समाजवादी रूपान्तरण के लक्ष्य को त्याग दिया है। यहां तक कि इन्होने क्रानित के अपने दो चरणों के अनोखे सिद्वांत को भी त्याग दिया है और अब सिफ एक मंत्र का जाप कर रहे हैं, वह है - बुजर्ुआ जनवाद। प्रत्यक्ष विदेष निवेष के लिए इनके उत्साह व कारपोरेट गिदधों के इषारों पर नाचने की इनकी ललक ने इन्हे पषिचम बंगाल में षर्मनाक हार तक पहुंचाया है। अपने परम्परागत नेतृत्व के इस कपटपूर्ण भूमिका के बावजूद भारतीय सर्वहारा इतिहास के मंच पर पुन: वापस अपनी जगह बनाने में लगा है। कम्युनिस्ट पार्टियों की कतारों में फूट पड़ गर्इ है और उसके युवा तबके के भीतर माओवादी विद्रोह का रूझान बढ़ा है। परन्तु गुरिल्ला युद्व की रणनीति इस राजसत्ता को नहीं परास्त कर सकती है। दु:स्साहसवाद व अवसरवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, माआवादी नेतृत्व का दक्षिणपंथ की ओर झुकाव बढ़ा है। पषिचम बंगाल में ममता बैनर्जी की सरकार ने इनके सैद्वानितक दिवालियेपन को उजागर किया है जिससे युवाओं को काफी झटका लगा है। इन 65 सालों में जापान से भी ज्यादा की संख्या में अरबपतियों वाला भारतीय षासक वर्ग राश्ट्रीय जनतांत्रिक क्रांति के किसी भी सवाल को हल कर पाने में पूरी तरह विफल रहा है। इसकी ऐतिहासिक असफलता नजरअंदाज किए जाने पर भी अब नहीं छिप पा रही है। अब भारतीय जनता के पास इस पूंजीवादी समाज में विकास का रास्ता नहीं बचा है। आर्थिक विकास जब विक्षोभ का षिकार है और जनता की सामाजिक हालत अभी और विकृत होने वाली है। कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व को यह स्वीकार करना पडे़गा कि भारतीय इंकलाब का चरित्र समाजवादी ही हो सकता है जो कि इस समूचे क्षेत्र में दक्षिण एषियार्इ समाजवादी महासंघ के गठन द्वारा फैल सकेगा। यदि वे ऐसा करने में असफल रहते हैं तो युवा वर्ग तथा भारतीय सर्वहारा के संघशोर्ं की नर्इ लहर इस नेतृत्व को खारिज करके इतिहास द्वारा प्रस्तुत इस चुनौती का सामना करने हेतु एक सर्वथा नवीन माक्र्सवादी क्रानितकारी नेतृत्व की बुनियाद रखेगी। षोशित व उत्पीडि़त मजदूरों, युुवाओं तथा किसानों से बना दूसरा भारत फिर से उठ खड़ा हो रहा है।